
एक 'माँ' ने बेज़ुबाँ बच्चों को अपने जिगर के टुकडों को
पढ़ने बढ़ने और खेलने की आज़ादी दी जी भर बोलने की
फिर भी यदि कोई रोके , कुछ करने कहने से टोके
तुम जाना पिता की 'सुप्रीम गोद' में |
पर आज बैठ उस माँ के 'दिल' पर
उँगली उठाई बाप की शुचिता पर
माँ की बर्बादी मनाई , उत्पाती बच्चों ने
दुश्मन की जय गाई , इन भस्मासुरी बच्चों ने
जिस लू में बहते तिनके की माफिक हो तुम
उससे कहीं ज़ियादा बड़े तूफ़ान लेके बड़े-बड़े अरमान
आये या तो मिट गए , या मुँह की खाकर छुप गए |
तोड़ने की ताक में न रह , बर्बादी की बात तो छोड़
आंच भी आई तो , इस माँ के सपूत हैं सवा सौ करोड़ |
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