जो मिला, ये है रास्ता, पर मंज़िल ये नही
ख़ाहिशे, उस दरिया की, जहां साहिल ही नहीं
जब पर्वतों को हो लांघना,
फिर ठोकरों से क्या गिला।
कूचे से जब बाहर चले
तो बन गया ये काफिला।।
मुमकिन है क्या, बस ये बता, भले मुश्किल ही सही
ख़ाहिशे...
बदली ज़ुबा है, जज़्बात नहीं
अब काटों की औकात नहीं
हर बेबसी पर कर फ़तेह
ऊंचे हम हैं हालात नहीं
है आज जहां इस पे न जा, मुस्तकबिल ये नहीं
ख़ाहिशे....
जो मिला, ये है रास्ता, पर मंज़िल ये नही
ख़ाहिशे, उस दरिया की, जहां साहिल ही नहीं
~पवन मिश्रा